विविध >> परम वीर चक्र परम वीर चक्रमेजर जनरल इयान कारडोजो
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गोलियों का सामना करनेवाले साहसी वीरों, विपरीत परिस्थितियों में जान पर खेलकर भी अद्वितीय शौर्य प्रदर्शित करनेवाले जाँबाजों की कहानी।
प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
यह गोलियों का सामना करनेवाले साहसी वीरों, विपरीत परिस्थितियों में जान
पर खेलकर भी अद्वितीय शौर्य प्रदर्शित करनेवाले जाँबाजों, अपने अधिकारियों
द्वारा प्रेरित साहसी भारतीय सैनिकों की कहानी है। हालाँकि युद्ध किसी देश
की राजनीति का एक विस्तार है, युद्ध क्षेत्र में मुकाबला करने की
जिम्मेदारी सैनिक की होती है। ‘स्वयं से पहले देश’
वाली
संस्कृति में पले भारतीय सेना के सिपाही प्रतिकूल परिस्थितियों को अवसर
में बदलते हुए और असंभव को संभव कर दिखाने के साथ विजय प्राप्त करते हुए
चुनौतियों का सामना करते हैं। हालाँकि उनके साहसी कारनामों को पुरस्कृत
किया जाता है, परंतु कई अन्य बातों को गौर किए जाने की आवश्यकता है कि वह
कौन सी चीज है, जो उन्हें ऐसा बनाती है ? यह पुस्तक भारतीय सैनिकों की
अपने देश के प्रति प्रतिबद्धता और समर्पण को बेहतर तरीके से समझने में मदद
करती है।
आभार
मैं उन व्यक्तियों, संगठनों तथा संस्थानों का अत्यंत आभारी हूँ, जिन्होंने
परम वीर चक्र और उसे प्राप्त करनेवाले जाँबाजों की गाथाएँ दर्ज करने में
मेरी सहायता की। उनके योगदान के बिना इस पुस्तक की रचना संभव नहीं थी।
इनमें सभी शामिल हैं-पुस्तकों के लेखक, रेजीमेंटों का इतिहास, इंटरनेट के
सर्च इंजन, अखबारों व पत्रिकाओं के लेख, विजेताओं के अधिकारियों व मित्रों
के पत्र, वे लोग जो इन अभियानों या युद्धों में भाग ले चुके हैं, इन सबसे
साक्षात्कार सैनिक असैनिक आदि।
मैं विभिन्न बटालियनों के कमान अधिकारियों रेजीमेंट केंद्रों के कमांडेंटों के प्रति विशेष आभार व्यक्त करता हूँ, जिन्होंने अपने व्यस्त समय में से कुछ समय इस कार्य में लगाया। मैं भारत रक्षक तथा गूगल डॉट कॉम के लोगों का भी आभारी हूँ, जिन्होंने काफी परिश्रम करके परम वीर चक्र तथा अन्य विषयों पर सैन्य सूचनाएँ एकत्र करके मुझे प्रदान कीं। इससे मुझे इस पुस्तक की रचना में काफी सहायता मिली।
निम्नलिखित रेजीमेंट केंद्रों के कमांडेंटों तथा यूनिटों के कमान अधिकारियों ने प्रशस्ति-पत्र, चित्र, युद्ध का विवरण, परम वीर चक्र प्राप्त करनेवालों के बारे में व्यक्तिगत जानकारियाँ आदि देने में सहायता की है-
1. ब्रिगेडियर पी.के.सक्सेना-कमांडेंट कुमाऊँ रेजीमेंटल सेंटर।
2. ब्रिगेडियर विजय आगा-कमांडेंट हेड क्वार्टर बॉम्बे इंजीनियरिंग ग्रुप तथा सेंटर।
3. ब्रिगेडियर कमल सूद-कमांडेंट, 14 गोरखा ट्रेनिंग सेंटर।
4. कर्नल टी.पी.एस.गिल-ऑफीसिएटिंग कमांडर सिख रेजीमेंटल सेंटर।
5. कर्नल एस.एस.घोष-डिप्टी कमांडेंट ब्रिगेट ऑफ द गार्डर्स रेजीमेंटल सेंटर।
6. कर्नल जसवीर सिंह व कर्नल वाई.के.जोशी वीर चक्र, कमान अधिकारी 13 जम्मू कश्मीर राइफल्स।
7. कर्नल आर.वी. कानेटकर कमांडेंट द पूना हॉर्स।
8. कर्नल सतीश दुआ-कमान अधिकारी, 8 जम्मू कश्मीर लाइट इन्फैंट्री।
9. कर्नल पी.डी.हल्लूर-कमान अधिकारी, 8 महार।
10. कर्नल मामराज सिंह-एस.एस.कमान अधिकारी, 5 महार।
11. कर्नल ललित कुमार राय-वीर चक्र।
12. लेफ्टिनेंट कर्नल ए.अस्थाना-कमान अधिकारी, 1/11 गोरखा राइफल्स।
13. कर्नल विजय पाल-कमान अधिकारी, 6 राजपूताना राइफल्स।
14. कर्नल देवेंद्र कपूर, कमान अधिकारी 4 गार्ड्स।
15. कर्नल अनुराग गुप्ता-कमान अधिकरी, 4 मैकैनिकल 1 सिख।
16. मेजर गौतम कालिता-ऑफिसिएटिंग कमान अधिकारी, 14 गार्ड्स।
17. कर्नल ए.आर.सैमुएल-कमान अधिकारी, 3 मैकैनिकल (1/8 ग्रैनेडियर्स)
18. कर्नल बी.बी. पटनायक-कमान अधिकारी, 3 ग्रेनेडियर्स।
19. लेफ्टिनेंट कर्नल अशोक कुमार-सेकेंड-इन-कमांड, 4 ग्रेनेडियर्स।
20. लेफ्टिनेंट कर्नल संजीव भट्टी-एस.एम.एस.सी.ग्रेनेडियर्स रेजीमेंटल सेंटर।
मैं विभिन्न बटालियनों के कमान अधिकारियों रेजीमेंट केंद्रों के कमांडेंटों के प्रति विशेष आभार व्यक्त करता हूँ, जिन्होंने अपने व्यस्त समय में से कुछ समय इस कार्य में लगाया। मैं भारत रक्षक तथा गूगल डॉट कॉम के लोगों का भी आभारी हूँ, जिन्होंने काफी परिश्रम करके परम वीर चक्र तथा अन्य विषयों पर सैन्य सूचनाएँ एकत्र करके मुझे प्रदान कीं। इससे मुझे इस पुस्तक की रचना में काफी सहायता मिली।
निम्नलिखित रेजीमेंट केंद्रों के कमांडेंटों तथा यूनिटों के कमान अधिकारियों ने प्रशस्ति-पत्र, चित्र, युद्ध का विवरण, परम वीर चक्र प्राप्त करनेवालों के बारे में व्यक्तिगत जानकारियाँ आदि देने में सहायता की है-
1. ब्रिगेडियर पी.के.सक्सेना-कमांडेंट कुमाऊँ रेजीमेंटल सेंटर।
2. ब्रिगेडियर विजय आगा-कमांडेंट हेड क्वार्टर बॉम्बे इंजीनियरिंग ग्रुप तथा सेंटर।
3. ब्रिगेडियर कमल सूद-कमांडेंट, 14 गोरखा ट्रेनिंग सेंटर।
4. कर्नल टी.पी.एस.गिल-ऑफीसिएटिंग कमांडर सिख रेजीमेंटल सेंटर।
5. कर्नल एस.एस.घोष-डिप्टी कमांडेंट ब्रिगेट ऑफ द गार्डर्स रेजीमेंटल सेंटर।
6. कर्नल जसवीर सिंह व कर्नल वाई.के.जोशी वीर चक्र, कमान अधिकारी 13 जम्मू कश्मीर राइफल्स।
7. कर्नल आर.वी. कानेटकर कमांडेंट द पूना हॉर्स।
8. कर्नल सतीश दुआ-कमान अधिकारी, 8 जम्मू कश्मीर लाइट इन्फैंट्री।
9. कर्नल पी.डी.हल्लूर-कमान अधिकारी, 8 महार।
10. कर्नल मामराज सिंह-एस.एस.कमान अधिकारी, 5 महार।
11. कर्नल ललित कुमार राय-वीर चक्र।
12. लेफ्टिनेंट कर्नल ए.अस्थाना-कमान अधिकारी, 1/11 गोरखा राइफल्स।
13. कर्नल विजय पाल-कमान अधिकारी, 6 राजपूताना राइफल्स।
14. कर्नल देवेंद्र कपूर, कमान अधिकारी 4 गार्ड्स।
15. कर्नल अनुराग गुप्ता-कमान अधिकरी, 4 मैकैनिकल 1 सिख।
16. मेजर गौतम कालिता-ऑफिसिएटिंग कमान अधिकारी, 14 गार्ड्स।
17. कर्नल ए.आर.सैमुएल-कमान अधिकारी, 3 मैकैनिकल (1/8 ग्रैनेडियर्स)
18. कर्नल बी.बी. पटनायक-कमान अधिकारी, 3 ग्रेनेडियर्स।
19. लेफ्टिनेंट कर्नल अशोक कुमार-सेकेंड-इन-कमांड, 4 ग्रेनेडियर्स।
20. लेफ्टिनेंट कर्नल संजीव भट्टी-एस.एम.एस.सी.ग्रेनेडियर्स रेजीमेंटल सेंटर।
निम्नलिखित अधिकारियों व स्रोतों से भी सहयोग मिला
1. लेफ्टिनेंट जनरल आर.एस.खालोन
प.वि.से.मे., वी.एस.एम., अ.वि.से.मे।
2. लेफ्टिनेंट जनरल सुरेंद्रनाथ शर्मा, प.वि.से.मे, अ.वि.से.मे. कॉर्प्स ऑफ इंजीनियर्स।
3. लेफ्टिनेंट जनरल वाई.के.मेहता-अ.वि.से.मे., कमांडेंट इंडियन मिलिटरी अकादमी।
4. मेजर अशोक नाथ-स्टॉकहोम, स्वीडन।
5. मेजर जनरल ए.एस.पठानिया-वी.एस.एम., जनरल ऑफिसर कमांडिंग, 25 इन्फैंट्री डिवीजन।
6. मेजर जनरल फरद भट्टी।
7. मिलिटरी सेक्रेटरीज ब्रांच, आर्मी हेडक्वार्टर।
8. श्रीमती गोपाल राव।
9. एयर वाइस मार्शल एस.एस.मल्होत्रा।
10. श्री पुष्पिंदर सिंह।
11. स्क्वाड्रन लीडर राणा चीना।
12. ब्रिगेडियर सतीश कुमार इस्सर वी.एस.एम., द कुमाऊँ रेजीमेंट।
13. ग्रुप कैप्टन ए.के.सचदेव, रिसर्च फेलो, इंस्टीट्यूट ऑफ डिफेंस स्टडीज एंड एनालिसिस।
14. लेफ्टिनेंट कर्नल एन.जे.जॉर्ज-एडजुटेंट, इंडियन मिलिटरी एकेडमी।
15. लेफिटिनेंट कर्नल धन सिंह थापा-परम वीर चक्र, 1/8 गोरखा राइफल्स।
16. मेजर के.एस.मेहरा-एड्जुटेंट कुमाऊँ रेजीमेंटल सेंटर।
17. लेफ्टिनेंट जनरल वाई.तोमर –प.वि.से.मे., द ग्रेनेडियर रेजीमेंट।
18. लेफ्टिनेंट जनरल वेद एयरी-प.वि.से.मे.महावीर चक्र, द ग्रेनेडियर्स रेजीमेंट।
19. कैप्टन गौतम राजर्षि-एड्जुटेंट कुमाऊँ रेजीमेंटल सेंटर।
20. एयर कमोडोर आर.वी.फड़के-सीनियर फेलो, इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ डिफेंस स्टडीड एंड एनालिसिस।
21. हवलदार योगेंद्र सिंह यादव-परम वीर चक्र, 18 ग्रेनेडियर्स।
22. श्री सुनील रावत, एच.आर.डी.एक्जीक्यूटिव।
23. श्रीमती गायत्री रामचंद्रन।
24. श्रीमती शोभिता अस्थाना।
25. श्री.आर.पी.नैलवाल।
26. गोरखा संग्रहालय विंचेस्टर ब्रिटेन।
27. द फिफ्थ रॉयल गोरखा राइफल्स (सीमांत बल एसोसिएशन), ब्रिटेन
अंत में मैं अपनी पत्नी प्रिसीला को उत्साहवर्धन समझ व धैर्य बनाए रखने के लिए हार्दिक धन्यवाद देता हूँ, जो उन्होंने पुस्तक लेखन की दो साल की अवधि में जारी रखा।
2. लेफ्टिनेंट जनरल सुरेंद्रनाथ शर्मा, प.वि.से.मे, अ.वि.से.मे. कॉर्प्स ऑफ इंजीनियर्स।
3. लेफ्टिनेंट जनरल वाई.के.मेहता-अ.वि.से.मे., कमांडेंट इंडियन मिलिटरी अकादमी।
4. मेजर अशोक नाथ-स्टॉकहोम, स्वीडन।
5. मेजर जनरल ए.एस.पठानिया-वी.एस.एम., जनरल ऑफिसर कमांडिंग, 25 इन्फैंट्री डिवीजन।
6. मेजर जनरल फरद भट्टी।
7. मिलिटरी सेक्रेटरीज ब्रांच, आर्मी हेडक्वार्टर।
8. श्रीमती गोपाल राव।
9. एयर वाइस मार्शल एस.एस.मल्होत्रा।
10. श्री पुष्पिंदर सिंह।
11. स्क्वाड्रन लीडर राणा चीना।
12. ब्रिगेडियर सतीश कुमार इस्सर वी.एस.एम., द कुमाऊँ रेजीमेंट।
13. ग्रुप कैप्टन ए.के.सचदेव, रिसर्च फेलो, इंस्टीट्यूट ऑफ डिफेंस स्टडीज एंड एनालिसिस।
14. लेफ्टिनेंट कर्नल एन.जे.जॉर्ज-एडजुटेंट, इंडियन मिलिटरी एकेडमी।
15. लेफिटिनेंट कर्नल धन सिंह थापा-परम वीर चक्र, 1/8 गोरखा राइफल्स।
16. मेजर के.एस.मेहरा-एड्जुटेंट कुमाऊँ रेजीमेंटल सेंटर।
17. लेफ्टिनेंट जनरल वाई.तोमर –प.वि.से.मे., द ग्रेनेडियर रेजीमेंट।
18. लेफ्टिनेंट जनरल वेद एयरी-प.वि.से.मे.महावीर चक्र, द ग्रेनेडियर्स रेजीमेंट।
19. कैप्टन गौतम राजर्षि-एड्जुटेंट कुमाऊँ रेजीमेंटल सेंटर।
20. एयर कमोडोर आर.वी.फड़के-सीनियर फेलो, इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ डिफेंस स्टडीड एंड एनालिसिस।
21. हवलदार योगेंद्र सिंह यादव-परम वीर चक्र, 18 ग्रेनेडियर्स।
22. श्री सुनील रावत, एच.आर.डी.एक्जीक्यूटिव।
23. श्रीमती गायत्री रामचंद्रन।
24. श्रीमती शोभिता अस्थाना।
25. श्री.आर.पी.नैलवाल।
26. गोरखा संग्रहालय विंचेस्टर ब्रिटेन।
27. द फिफ्थ रॉयल गोरखा राइफल्स (सीमांत बल एसोसिएशन), ब्रिटेन
अंत में मैं अपनी पत्नी प्रिसीला को उत्साहवर्धन समझ व धैर्य बनाए रखने के लिए हार्दिक धन्यवाद देता हूँ, जो उन्होंने पुस्तक लेखन की दो साल की अवधि में जारी रखा।
भूमिका
‘एक सच्चा सिपाही जब आगे बढ़ता है तो वह यह बहस नहीं करता कि
आखिर
सफलता कैसे हासिल होगी, बल्कि वह यह मानता है कि यदि इस अभियान का अपना
छोटा सा हिस्सा वह पूरा कर देगा तो सफलता किसी न किसी तरह मिल ही जाएगी।
हम सभी को इसी भावना से काम करना चाहिए। हमारे पास जानने के लिए भविष्य
उपलब्ध नहीं है। हमें सिर्फ यह जानना है कि हमें अपने हिस्से का कर्तव्य
कैसे निभाना है।’
महात्मा गांधी
भारत की स्वतंत्रता के लगभग ढाई वर्ष बाद जनवरी 1950 में ‘परम
वीर
चक्र’ देने की शुरुआत हुई थी। पिछले तिरपन वर्षों में इक्कीस
वीरों
को यह गौरव प्राप्त हुआ है, जिनमें से चौदह को मरणोपरांत मिला है।
यह पुस्तक इन महानायकों की वीरगाथाओं को लिपिबद्ध करने का प्रयास है। आशा है, ऐसा करने से इस महान् राष्ट्र के निवासी रक्षक सेनाओं के करीब आएँगे और यह जान पाएँगे कि वे देश की सुरक्षा कैसे और किन स्थितियों में करते हैं।
यहाँ पर यह याद रखने योग्य है कि पराक्रम व साहस के पुतलों का कृतित्व उन अनजाने सिपाहियों के समर्पण तथा बलिदान का अल्पांश ही है, जो उन्होंने देशवासियों के लिए किया। उनके कारण देश के लोग चैन की नींद सो पाए, पर उनकी गाथा न कहीं सुनी गई और न कही गई।
इन वीरों के पराक्रम व बलिदान की गाथा नागरिकों के लिए सदैव अनुकरणीय बनी रहेगी। कैसे ये योद्धा बने ? क्या ये साधारण मनुष्य थे, जिन्होंने असाधारण कार्य कर दिखाए ? कैसे उन्होंने परिस्थितियों को चुनौती दे डाली ? ये सब कठिन प्रश्न है और पाठकों को इनका उत्तर इस पुस्तक को पढ़ने के बाद ही मिल पाएगा।
इन राष्ट्रीय महानायकों के पराक्रम का वर्णन तब तक अधूरा रहता जब तक उन युद्धों की जानकारी नहीं दी जाती, जिनमें उन्होंने अपना रण-कौसल दिखाया था। हालाँकि यह कठिन कार्य था, पर प्रयास किया गया कि युद्ध की पृष्ठभूमि, अभियान, युद्ध तथा दिए गए प्रशस्ति-पत्रों का अधिकतम ब्योरा पाठकों को मिले, ताकि उन वीरों का कृतित्व उभरकर सामने आ पाए। पुस्तक में हर परम वीर चक्र विजेता का जीवन-वृत्तांत भी दिया गया है, ताकि पाठक यह जान सकें कि किन घटनाओं ने उन्हें महान् बनने की लिए अपेक्षित नेतृत्व चरित्र व्यकित्व आदि हासिल करने में सहायता की।
यह पुस्तक इन महानायकों की वीरगाथाओं को लिपिबद्ध करने का प्रयास है। आशा है, ऐसा करने से इस महान् राष्ट्र के निवासी रक्षक सेनाओं के करीब आएँगे और यह जान पाएँगे कि वे देश की सुरक्षा कैसे और किन स्थितियों में करते हैं।
यहाँ पर यह याद रखने योग्य है कि पराक्रम व साहस के पुतलों का कृतित्व उन अनजाने सिपाहियों के समर्पण तथा बलिदान का अल्पांश ही है, जो उन्होंने देशवासियों के लिए किया। उनके कारण देश के लोग चैन की नींद सो पाए, पर उनकी गाथा न कहीं सुनी गई और न कही गई।
इन वीरों के पराक्रम व बलिदान की गाथा नागरिकों के लिए सदैव अनुकरणीय बनी रहेगी। कैसे ये योद्धा बने ? क्या ये साधारण मनुष्य थे, जिन्होंने असाधारण कार्य कर दिखाए ? कैसे उन्होंने परिस्थितियों को चुनौती दे डाली ? ये सब कठिन प्रश्न है और पाठकों को इनका उत्तर इस पुस्तक को पढ़ने के बाद ही मिल पाएगा।
इन राष्ट्रीय महानायकों के पराक्रम का वर्णन तब तक अधूरा रहता जब तक उन युद्धों की जानकारी नहीं दी जाती, जिनमें उन्होंने अपना रण-कौसल दिखाया था। हालाँकि यह कठिन कार्य था, पर प्रयास किया गया कि युद्ध की पृष्ठभूमि, अभियान, युद्ध तथा दिए गए प्रशस्ति-पत्रों का अधिकतम ब्योरा पाठकों को मिले, ताकि उन वीरों का कृतित्व उभरकर सामने आ पाए। पुस्तक में हर परम वीर चक्र विजेता का जीवन-वृत्तांत भी दिया गया है, ताकि पाठक यह जान सकें कि किन घटनाओं ने उन्हें महान् बनने की लिए अपेक्षित नेतृत्व चरित्र व्यकित्व आदि हासिल करने में सहायता की।
मेजर जनरल इयान कोरडोजो
अनुवादक की कलम से
युद्ध प्रारंभ से ही मानव-सभ्यता का अंग रहा है। ज्यों-ज्यों सभ्यता का
विकास हुआ त्यों-त्यों युद्ध का प्रभाव व विभीषिका दोनों में बढ़ोतरी हुई।
जब सन् 1971 का भारत-पाक युद्ध हुआ था तो मैं मात्र दस ग्यारह वर्ष का था। उस समय मेरे पिताजी राँची के बाहरी इलाके नामकुम स्थित इंडियन काउंसिल ऑफ एग्रीकल्चरल रिसर्च के एक संस्थान में वैज्ञानिक के पद पर कार्यरत थे और हम लोग उसी कैंपस में रहते थे। आस-पास कैंटोनमेंट इलाका था और एक बड़ा फौजी अस्पताल भी वहाँ था। हम बच्चे फौजियों को आते-जाते देखते थे। कई बार हम उन्हें सैल्यूट करते थे तो वे हँसकर हमें जवाब देते थे।
सन् 1971 के युद्ध ने हमारे बाल मन पर देश प्रेम की गहरी छाप छोड़ी। तब युद्ध की खबरें हमने बड़े चाव से सुनीं। जब अल्बर्ट एक्का को परम वीर चक्र देने की घोषणा हुई तो पूरे इलाके को इस पर गर्व हुआ। अल्बर्ट राँची के ही आदिवासी इलाके के निवासी थे। एक बहुत बड़ा जुलूस उनके सम्मान में निकाला गया। बाद में बँगलादेश में पकड़े गए पाकिस्तानी युद्धबंदी नामकुम में ही रखे गए थे। काँटेदार तारों के बाड़े में बंद ये युद्धबंदी कौतूहल की वस्तु हो गए थे। बड़ी संख्या में लोग उन्हें देखने आया करते थे। उन्हें देख-देखकर हमें अपनी सेनाओं पर बड़ा गर्व होता था।
समय बीतता गया। विकलांगता-संबंधी मुद्दों पर चर्चा के लिए आयोजित एक बैठक में मेरी मुलाकात मेजर जनरल कारडोजो से हुई। मैं उनके ओजस्वी विचारों व स्पष्टवादिता से काफी प्रभावित हुआ। बातों-बातों में पता चला कि मेजर जनरल परम वीर चक्र विजेताओं पर एक पुस्तक लिख रहे हैं। मैंने तभी मन बना लिया कि इस पुस्तक का अनुवाद मुझे करना है।
पुस्तक के अंग्रेजी संस्करण के लोकार्पण समारोह में मैं भी आमंत्रित था।
जब सन् 1971 का भारत-पाक युद्ध हुआ था तो मैं मात्र दस ग्यारह वर्ष का था। उस समय मेरे पिताजी राँची के बाहरी इलाके नामकुम स्थित इंडियन काउंसिल ऑफ एग्रीकल्चरल रिसर्च के एक संस्थान में वैज्ञानिक के पद पर कार्यरत थे और हम लोग उसी कैंपस में रहते थे। आस-पास कैंटोनमेंट इलाका था और एक बड़ा फौजी अस्पताल भी वहाँ था। हम बच्चे फौजियों को आते-जाते देखते थे। कई बार हम उन्हें सैल्यूट करते थे तो वे हँसकर हमें जवाब देते थे।
सन् 1971 के युद्ध ने हमारे बाल मन पर देश प्रेम की गहरी छाप छोड़ी। तब युद्ध की खबरें हमने बड़े चाव से सुनीं। जब अल्बर्ट एक्का को परम वीर चक्र देने की घोषणा हुई तो पूरे इलाके को इस पर गर्व हुआ। अल्बर्ट राँची के ही आदिवासी इलाके के निवासी थे। एक बहुत बड़ा जुलूस उनके सम्मान में निकाला गया। बाद में बँगलादेश में पकड़े गए पाकिस्तानी युद्धबंदी नामकुम में ही रखे गए थे। काँटेदार तारों के बाड़े में बंद ये युद्धबंदी कौतूहल की वस्तु हो गए थे। बड़ी संख्या में लोग उन्हें देखने आया करते थे। उन्हें देख-देखकर हमें अपनी सेनाओं पर बड़ा गर्व होता था।
समय बीतता गया। विकलांगता-संबंधी मुद्दों पर चर्चा के लिए आयोजित एक बैठक में मेरी मुलाकात मेजर जनरल कारडोजो से हुई। मैं उनके ओजस्वी विचारों व स्पष्टवादिता से काफी प्रभावित हुआ। बातों-बातों में पता चला कि मेजर जनरल परम वीर चक्र विजेताओं पर एक पुस्तक लिख रहे हैं। मैंने तभी मन बना लिया कि इस पुस्तक का अनुवाद मुझे करना है।
पुस्तक के अंग्रेजी संस्करण के लोकार्पण समारोह में मैं भी आमंत्रित था।
भारत में शौर्य सम्मानों का प्रारंभ
समाज में शौर्य-प्रदर्शन करनेवालों तथा युद्ध में दुश्मन के छक्के
छुड़ानेवालों को सम्मानित करने की परंपरा प्राचीन काल से ही चली आ रही है।
पूरे विश्व में युद्ध में सैनिक असाधारण बहादुरी दिखाते रहे हैं और इसके
लिए जब प्रतीक रूप में ही सही, उन्हें सम्मान मिलता है तो वे उसे गर्व
सहित ग्रहण करते हैं। ये सम्मान उन्हें समाज में विशिष्ट स्थान व सम्मान
दिलाते हैं।
इन सम्मानों की परंपरा का अपना बड़ा ही रोचक इतिहास है।
इन सम्मानों की परंपरा का अपना बड़ा ही रोचक इतिहास है।
प्राचीन भारत
प्राचीन भारत में दैवी पुरस्कार पर ज्यादा जोर दिया जाता था। जो लोग धर्म
के पक्ष में युद्ध करते हुए मारे जाते थे, उन्हें ‘वीरगति
प्राप्त’ अर्थात् ‘शहीद’ कहा जाता था और यह
माना जाता
था कि सीधे स्वर्ग को प्रस्थान करते हैं। युद्धक्षेत्र में हुई मृत्यु को
श्रेष्ठ गति (मृत्यु) माना जाता था और ऐसे लोगों की समाज में भूरि-भूरि
प्रशंसा होती थी। गुप्तकाल में रचित काव्य रघुवंश में वर्णित है कि युद्ध
में मारे जानेवाले सैनिकों को अप्सराएँ स्वयं स्वर्ग ले जाती हैं।
इसी काल में दक्षिण भारत में योद्धाओं की समाधि-स्मारक बनाने की परंपरा भी प्रारंभ हुई। दूसरी शताब्दी में ही इस प्रकार के स्मारक बनाने का उल्लेख साहित्य में मिलता है। जब भी कोई बड़ा योद्धा वीरगति को प्राप्त होता था तो उसके प्राण त्यागने के स्थान को चिह्नित कर दिया जाता था तथा वहाँ पर एक बड़ी शिला स्थापित की जाती थी, जिस पर योद्धा का नाम, वीरता का प्रसंग आदि लिख दिया जाता था। यह परंपरा तमिलनाडु व कर्नाटक में दसवीं शताब्दी तक जारी रही।
वीरों को पृथ्वी पर तमाम सुख-सुविधाएँ प्राप्त होती थीं। श्रीमद्भगवद्गीता में भगवान श्रीकृष्ण ने अपने उपदेश में अर्जुन से कहा था कि यदि वह युद्ध में विजयी हुआ तो पृथ्वी पर स्थित तमाम सुख भोगेगा और इसलिए उसे युद्ध करना चाहिए। जो योद्धा शत्रु के घेरे को तोड़ देते थे या अपना ढहता हुआ मोरचा बचाने में कामयाब होते थे, उन्हें शाही सम्मान मिला करता था। युद्धक्षेत्र में उसकी सफलता को सराहा जाता था तथा राजे-महाराजे ऐसे योद्धाओं को खिताबों, विशिष्ट स्थान, पदोन्नति व अन्य लाभों से सम्मानित करते थे। इनमें जागीरें नकद राशि, जेवरात (जैसे स्वर्ण, मुकुट कंगन चूड़ामणि हार आदि) भी शामिल होते थे, जिन्हें पहननेवाले व्यक्ति को विशिष्ट व्यक्ति माना जाता था। दूसरी ओर यूनान रोम आदि में भी बहादुर सिपाहियों को इसी प्रकार के धातु के पदक, मुकुट आदि दिए जाते थे। कई जगह, विशेष रूप से जनजातियों में लकड़ी तथा विभिन्न पत्तों के प्रतीक-चिह्न दिए जाते थे।
कौटिल्य द्वारा रचित ‘अर्थशास्त्र’ में शौर्य सम्मानों का स्पष्ट व विस्तृत वर्णन है। शत्रु राजा को मारने के लिए एक लाख पण (प्राचीन मुद्रा) शत्रु सेनापति या युवराज को मारने पर पचास हजार पण, विपक्षी सेनानायक या सिपहसालार को मारने पर दस हजार पण और शत्रु के हाथी को मारने या रथ ध्वस्त करने पर पाँच हजार पण पुरस्कार स्वरूप दिए जाते थे। अग्निपुराण में भी इस प्रकार के पुरस्कारों का वर्णन है तथा शुक्रनीति में राजा को सलाह दी गई है कि वह सैनिकों को उनके शौर्य-प्रदर्शन पर धन व अधिकार देकर सम्मानित करे। अर्थशास्त्र में इस बात का वर्णन है कि एक गाँव के निवासियों ने जब राज्य के युद्ध प्रयासों में असाधारण योगदान किया तो उस गाँव को पूरी तरह लगान मुक्त कर दिया गया। आंध्र के राजा पुलामवी ने अपने सैनिक अधिकारियों को बड़ी-बड़ी जमींदारियाँ दी थीं। थानेश्वर के राजा हर्ष भी अपने वीर सैनिक अधिकारियों को जागीरें दिया करते थे।
वराहमिहिर द्वारा रचित ‘वृहत्संहिता’ में इस बात का वर्णन है कि राजा ने वीर सिपाहियों को एक इंच चौड़ी स्वर्ण-पट्टिका प्रदान कीं, जो स्वर्णमुकुट जैसी शोभा बढ़ाती थीं। अजंता की गुफाओं में स्थित मूर्तियों में अनेक मूर्तियाँ ऐसे सिपाहियों की हैं, जो इस प्रकार की स्वर्ण-पट्टिका पहने हैं। युद्ध में मारे जानेवाले वीर सिपाहियों को लगान-मुक्त जमीन, जिन्हें ‘कलनाद’ कहा जाता था, देने का वर्णन होयसल साम्राज्य की गाथाओं में है। अनेक ग्रंथों में यह वर्णित है कि जो लोग युद्धक्षेत्र में वीरतापूर्वक प्राण न्योछावर करते थे, उनकी विधवाओं को पेंशन के रूप में धनराशि दी जाती थी। यही नहीं, होयसल राजा तो विपक्षी सेना के कुशल तीरंदाज को भी ‘सुमट’ उपाधि प्रदान करते थे, जिनका अर्थ होता था- ‘अच्छे योद्धा का ताज’।
इसी काल में दक्षिण भारत में योद्धाओं की समाधि-स्मारक बनाने की परंपरा भी प्रारंभ हुई। दूसरी शताब्दी में ही इस प्रकार के स्मारक बनाने का उल्लेख साहित्य में मिलता है। जब भी कोई बड़ा योद्धा वीरगति को प्राप्त होता था तो उसके प्राण त्यागने के स्थान को चिह्नित कर दिया जाता था तथा वहाँ पर एक बड़ी शिला स्थापित की जाती थी, जिस पर योद्धा का नाम, वीरता का प्रसंग आदि लिख दिया जाता था। यह परंपरा तमिलनाडु व कर्नाटक में दसवीं शताब्दी तक जारी रही।
वीरों को पृथ्वी पर तमाम सुख-सुविधाएँ प्राप्त होती थीं। श्रीमद्भगवद्गीता में भगवान श्रीकृष्ण ने अपने उपदेश में अर्जुन से कहा था कि यदि वह युद्ध में विजयी हुआ तो पृथ्वी पर स्थित तमाम सुख भोगेगा और इसलिए उसे युद्ध करना चाहिए। जो योद्धा शत्रु के घेरे को तोड़ देते थे या अपना ढहता हुआ मोरचा बचाने में कामयाब होते थे, उन्हें शाही सम्मान मिला करता था। युद्धक्षेत्र में उसकी सफलता को सराहा जाता था तथा राजे-महाराजे ऐसे योद्धाओं को खिताबों, विशिष्ट स्थान, पदोन्नति व अन्य लाभों से सम्मानित करते थे। इनमें जागीरें नकद राशि, जेवरात (जैसे स्वर्ण, मुकुट कंगन चूड़ामणि हार आदि) भी शामिल होते थे, जिन्हें पहननेवाले व्यक्ति को विशिष्ट व्यक्ति माना जाता था। दूसरी ओर यूनान रोम आदि में भी बहादुर सिपाहियों को इसी प्रकार के धातु के पदक, मुकुट आदि दिए जाते थे। कई जगह, विशेष रूप से जनजातियों में लकड़ी तथा विभिन्न पत्तों के प्रतीक-चिह्न दिए जाते थे।
कौटिल्य द्वारा रचित ‘अर्थशास्त्र’ में शौर्य सम्मानों का स्पष्ट व विस्तृत वर्णन है। शत्रु राजा को मारने के लिए एक लाख पण (प्राचीन मुद्रा) शत्रु सेनापति या युवराज को मारने पर पचास हजार पण, विपक्षी सेनानायक या सिपहसालार को मारने पर दस हजार पण और शत्रु के हाथी को मारने या रथ ध्वस्त करने पर पाँच हजार पण पुरस्कार स्वरूप दिए जाते थे। अग्निपुराण में भी इस प्रकार के पुरस्कारों का वर्णन है तथा शुक्रनीति में राजा को सलाह दी गई है कि वह सैनिकों को उनके शौर्य-प्रदर्शन पर धन व अधिकार देकर सम्मानित करे। अर्थशास्त्र में इस बात का वर्णन है कि एक गाँव के निवासियों ने जब राज्य के युद्ध प्रयासों में असाधारण योगदान किया तो उस गाँव को पूरी तरह लगान मुक्त कर दिया गया। आंध्र के राजा पुलामवी ने अपने सैनिक अधिकारियों को बड़ी-बड़ी जमींदारियाँ दी थीं। थानेश्वर के राजा हर्ष भी अपने वीर सैनिक अधिकारियों को जागीरें दिया करते थे।
वराहमिहिर द्वारा रचित ‘वृहत्संहिता’ में इस बात का वर्णन है कि राजा ने वीर सिपाहियों को एक इंच चौड़ी स्वर्ण-पट्टिका प्रदान कीं, जो स्वर्णमुकुट जैसी शोभा बढ़ाती थीं। अजंता की गुफाओं में स्थित मूर्तियों में अनेक मूर्तियाँ ऐसे सिपाहियों की हैं, जो इस प्रकार की स्वर्ण-पट्टिका पहने हैं। युद्ध में मारे जानेवाले वीर सिपाहियों को लगान-मुक्त जमीन, जिन्हें ‘कलनाद’ कहा जाता था, देने का वर्णन होयसल साम्राज्य की गाथाओं में है। अनेक ग्रंथों में यह वर्णित है कि जो लोग युद्धक्षेत्र में वीरतापूर्वक प्राण न्योछावर करते थे, उनकी विधवाओं को पेंशन के रूप में धनराशि दी जाती थी। यही नहीं, होयसल राजा तो विपक्षी सेना के कुशल तीरंदाज को भी ‘सुमट’ उपाधि प्रदान करते थे, जिनका अर्थ होता था- ‘अच्छे योद्धा का ताज’।
मध्य युग में
मुगलकाल में योद्धाओं को पदक या अन्य सम्मान देने का प्रमाण नहीं मिलता
है। साधारण सिपाहियों को वीरता के पश्चात् बचने या शहीद होने की स्थिति
में शायद किसी प्रकार का सम्मान नहीं मिलता था। अलबत्ता बड़े सैन्य
अधिकारियों को खिताब, विशेष पोशाक, उपहार आदि प्रदान करने का रिवाज था।
खिताब व्यक्ति की गुणवत्ता या उसके ओहदे के अनुसार दिए जाते थे। मुगलकाल
में ‘खान’ एक सामान्य उपाधि होती थी। ‘जफर
खान’
युद्ध जीतनेवाले को कहा जाता था और ‘शुजात खान’
बहादुरी
दिखानेवाले को। अफगान बादशाह शेरशाह सूरी को शेर मारने पर ‘शेर
खान’ की उपाधि मिली थी।
ईस्ट इंडिया कंपनी तथा ब्रिटिश काल में
आधुनिक प्रकार के पदकों की परंपरा ईस्ट इंडिया कंपनी के शासनकाल में ही
प्रारंभ हो चुकी थी। कंपनी ने अंग्रेजी परंपरा के अनुसार, उत्साहवर्धन के
लिए सन् 1668 से ही यूरोपीय तथा भारतीय अधिकारियों को कंपनी की उत्कृष्ट
सेवा हेतु विशेष रूप से निर्मित स्वर्ण पदक देना प्रारंभ कर दिया था। सन्
1795 में भारतीय अधिकारियों को शौर्य-प्रदर्शन हेतु पदक दिए गए थे।
सूबेदार अब्दुल कादिर पाँचवीं मद्रास देशी इन्फैंट्री के पहले सैनिक थे,
जिन्हें चरित्र व बहादुरी के प्रदर्शन के लिए जंजीर सहित स्वर्ण पदक
प्रदान किया गया था। अनेक अवसरों पर सैनिकों को विभिन्न वस्तुओं द्वारा
सम्मानित किया जाता था। सन् 1680 में चार भारतीय कनिष्ठ अधिकारियों को
स्कार्फ, कपड़े तथा धन देकर सम्मानित किया गया था। सन् 1809 में सूबेदार
मेजर मोहम्मद सरवर पहली लाइट कैवेलरी को एक ड्रम, तलवार, घोड़ा आदि सहित
खान बहादुर नादिरजंग का खिताब देकर सम्मानित किया गया था।
मई 1766 में मुंगेर में तैनात यूरोपीय अधिकारियों को मौत के घाट उतार दिया गया था। इसके बाद कानून व्यवस्था की बहाली के लिए तथा हत्यारों को गिरफ्तार करने के लिए भारतीय सिपाहियों को वहाँ भेजा गया। उनकी उत्कृष्ट सेवाओं की प्रशंसा करते हुए अधिकारियों को स्वर्ण पदक और अन्य सेवाओं के सैनिकों को चाँदी के पदक दिए गए। सन् 1799 में कंपनी ने स्वर्ण रजत, कास्य मिश्रित रजत, काँसे के पदक आदि तैयार कर लिये थे। उन दिनों अंग्रेजों का टीपू सुल्तान के साथ श्रीरंगपट्टनम में युद्ध चल रहा था। इसमें अंतत: टीपू सुल्तान की हार हुई थी और तब अंग्रेज सेना के भारतीय सिपाहियों को उक्त पदक दिए गए।
सन् 1834 में गवर्नर लॉर्ड विलियम बेंटिक ने अद्भुत शौर्य-प्रदर्शन के लिए एक अनोखा पुरस्कार ‘ऑर्डर ऑफ मेरिट‘ प्रारंभ किया। एक के बाद एक वीरता दिखानेवालों को तृतीय श्रेणी से द्वितीय श्रेणी और फिर प्रथम श्रेणी में पदोन्नत किया जाता था। सन् 1903 में इस पुरस्कार का नाम बदलकर ‘इंडियन ऑर्डर ऑफ मेरिट‘ रखा गया। एक अनोखे मामले में सूबेदार किशनबीर नागरकोटि पहली बटालियन पाँचवीं शाही गोरखा राइफल्स (सीमांत बल) को चार बार यह सम्मान प्रदान किया गया। इस प्रकार के सम्मान का महत्व इसलिए भी है, क्योंकि सन् 1856 में प्रारंभ विक्टोरिया क्रॉस पदक 1911 तक किसी भी भारतीय को नहीं मिल पाया था। इस अवधि में ‘इंडियन ऑर्डर ऑफ मेरिट’ ही विक्टोरिया क्रॉस के समकक्ष था। सन् 1907 से ‘भारतीय विशिष्ट सेवा पदक’ प्रारंभ किया गया।
मई 1766 में मुंगेर में तैनात यूरोपीय अधिकारियों को मौत के घाट उतार दिया गया था। इसके बाद कानून व्यवस्था की बहाली के लिए तथा हत्यारों को गिरफ्तार करने के लिए भारतीय सिपाहियों को वहाँ भेजा गया। उनकी उत्कृष्ट सेवाओं की प्रशंसा करते हुए अधिकारियों को स्वर्ण पदक और अन्य सेवाओं के सैनिकों को चाँदी के पदक दिए गए। सन् 1799 में कंपनी ने स्वर्ण रजत, कास्य मिश्रित रजत, काँसे के पदक आदि तैयार कर लिये थे। उन दिनों अंग्रेजों का टीपू सुल्तान के साथ श्रीरंगपट्टनम में युद्ध चल रहा था। इसमें अंतत: टीपू सुल्तान की हार हुई थी और तब अंग्रेज सेना के भारतीय सिपाहियों को उक्त पदक दिए गए।
सन् 1834 में गवर्नर लॉर्ड विलियम बेंटिक ने अद्भुत शौर्य-प्रदर्शन के लिए एक अनोखा पुरस्कार ‘ऑर्डर ऑफ मेरिट‘ प्रारंभ किया। एक के बाद एक वीरता दिखानेवालों को तृतीय श्रेणी से द्वितीय श्रेणी और फिर प्रथम श्रेणी में पदोन्नत किया जाता था। सन् 1903 में इस पुरस्कार का नाम बदलकर ‘इंडियन ऑर्डर ऑफ मेरिट‘ रखा गया। एक अनोखे मामले में सूबेदार किशनबीर नागरकोटि पहली बटालियन पाँचवीं शाही गोरखा राइफल्स (सीमांत बल) को चार बार यह सम्मान प्रदान किया गया। इस प्रकार के सम्मान का महत्व इसलिए भी है, क्योंकि सन् 1856 में प्रारंभ विक्टोरिया क्रॉस पदक 1911 तक किसी भी भारतीय को नहीं मिल पाया था। इस अवधि में ‘इंडियन ऑर्डर ऑफ मेरिट’ ही विक्टोरिया क्रॉस के समकक्ष था। सन् 1907 से ‘भारतीय विशिष्ट सेवा पदक’ प्रारंभ किया गया।
आधुनिक भारत (ब्रिटिश काल में)
उन्नीसवीं शताब्दी के मध्य तक अनोखी वीरता के व्यक्तिगत उदाहरणों को
सम्मानित करने की अलग परंपरा प्रारंभ हुई। क्रीमिया युद्ध में अद्भुत
वीरता का प्रदर्शन करनेवाले अंग्रेज सैनिकों को सम्मानित करने के लिए सबसे
प्रतिष्ठित सम्मान ‘विक्टोरिया क्रॉस’ प्रारंभ किया
गया।
इसमें सेबास्टोपोल से बरामद रूसी पिस्तौलों में इस्तेमाल हुई धातु से बने
काँसे का प्रयोग किया गया था। इसपर माल्टीज क्रॉस बना था। इसके बीच में
शाही चिह्न तथा नीचे ‘वीरता के लिए’ खुदा हुआ था। इस
पदक की
दूसरी ओर शौर्य-प्रदर्शन की तिथि, पानेवाले का नाम आदि अंकित रहता था।
पहले और दूसरे विश्वयुद्धों में चालीस भारतीयों को विक्टोरिया क्रॉस से सम्मानित किया गया था। इनमें से बारह सैनिक नेपाल के थे। इन भारतीय पदक विजेताओं की सूची परिशिष्ट में दी गई है।
प्रथम विश्वयुद्ध में अंग्रेजी परंपरा के अनुसार वर्गों के आधार पर सम्मान प्रदान किए जाते रहे। वरिष्ठ अधिकारियों को ‘विशिष्ट सेवा सम्मान’ कनिष्ठ अधिकारियों को ‘मिलिटरी क्रॉस’ तथा सन् 1944 के बाद जवानों को ‘मिलिटरी पदक’ दिया जाता था। सन् 1911 में ‘इंडियन ऑर्डर ऑफ मेरिट’ धीरे-धीरे दरकिनार किया जाने लगा। सन् 1911 मे यह दो दर्जों के सम्मान में विभाजित था तथा 1944 में एक दर्जे का ही रह गया। ‘इंडियन ऑर्डर ऑफ मेरिट’ के बारे में अलग से जानकारी परिशिष्ट में उपलब्ध है।
पहले और दूसरे विश्वयुद्धों में चालीस भारतीयों को विक्टोरिया क्रॉस से सम्मानित किया गया था। इनमें से बारह सैनिक नेपाल के थे। इन भारतीय पदक विजेताओं की सूची परिशिष्ट में दी गई है।
प्रथम विश्वयुद्ध में अंग्रेजी परंपरा के अनुसार वर्गों के आधार पर सम्मान प्रदान किए जाते रहे। वरिष्ठ अधिकारियों को ‘विशिष्ट सेवा सम्मान’ कनिष्ठ अधिकारियों को ‘मिलिटरी क्रॉस’ तथा सन् 1944 के बाद जवानों को ‘मिलिटरी पदक’ दिया जाता था। सन् 1911 में ‘इंडियन ऑर्डर ऑफ मेरिट’ धीरे-धीरे दरकिनार किया जाने लगा। सन् 1911 मे यह दो दर्जों के सम्मान में विभाजित था तथा 1944 में एक दर्जे का ही रह गया। ‘इंडियन ऑर्डर ऑफ मेरिट’ के बारे में अलग से जानकारी परिशिष्ट में उपलब्ध है।
स्वतंत्र भारत में
जैसे-जैसे आजादी का दिन पास आता गया वैसे-वैसे भारतीय सैनिक सम्मान की
परंपरा प्रारंभ होती गई। 14 अगस्त की रात्रि को अंग्रेजी शासन समाप्त हो
गया और साथ ही ब्रिटिश सम्मानों व पुरस्कारों का सिलसिला भी समाप्त हो
गया। लेकिन इसके बाद संवैधानिक समस्याएँ प्रारंभ हो गई, जिन्हें हल करना
कठिन था। सन् 1947-50 तक (जब तक भारत गणतंत्र नहीं बना तब तक) सैद्धांतिक
रूप से ब्रिटिश राजतंत्र ही भारत का भी प्रमुख रहा, पर इसके दो स्वशासी
डोमिनियन भारत व पाकिस्तान पहले ही वर्ष में सशस्त्र संघर्ष में उलझ गए।
तत्कालीन प्रधानमंत्री पं.जवाहरलाल नेहरू को इस बात का अहसास था कि
जम्मू-कश्मीर युद्ध के तत्काल बाद यदि शौर्य पुरस्कार दिए गए तो उनका
अधिकतम मूल्य होगा। पर उस समय पुरस्कार उपलब्ध नहीं थे। सन् 1947 से पूर्व
के पुरस्कार तब दिए जा सकते थे, लेकिन ये पुरस्कार पाकिस्तानियों को भी
दिए जा सकते थे और इस कारण एक ही ब्रिटिश साम्राज्य के दो स्वशासी
क्षेत्रों के आपसी संघर्ष में वीरता दिखानेवालों को एक जैसे पदक प्रदान
करना मूर्खतापूर्ण था। अत: नए पुरस्कारों की आवश्यकता महससू हुई। मई 1948
में नए प्रस्ताव तैयार हुए, जिनके तहत परम वीर चक्र महावीर चक्र तथा वीर
चक्र नामक तीन नए पुरस्कार जून 1948 में तय किए गए। पर भारत उस समय तक
गणतंत्र नहीं बन पाया था और भारतीय गवर्नर जनरल उन्हें मंजूरी नहीं दे
सकता था। उनके लिए ब्रिटिश राजतंत्र की मंजूरी आवश्यक थी और इसलिए
पुरस्कारों का प्रस्ताव लंदन भेजा गया।
लंदन में भारत के तत्कालीन उच्चायुक्त कृष्ण मेनन ने इस मामले की पैरवी समय–समय पर की, पर सन् 1948 के मध्य तक यह स्पष्ट हो गया कि ब्रिटिश साम्राज्य की मंजूरी इसे प्राप्त नहीं हो पाएगी। समस्या विकट थी। ब्रिटिश अपने राष्ट्रमंडल के दो सदस्य देशों के बीच युद्ध के लिए सम्मान कैसे मंजूर कर सकते थे। इसके अलावा इन पदकों पर ब्रिटिश राजतंत्र की सांकेतिक मुहर भी नहीं थी। इसलिए इनपर विचार नहीं हो सका। 1 जनवरी, 1949 को जम्मू-कश्मीर में युद्ध-विराम हो गया। उस युद्ध में वीरता दिखनेवालों को सम्मानित करने में देर करना हितकर नहीं था। अत: तत्कालीन प्रधानमंत्री ने गवर्नर जनरल चक्रवर्ती राजगोपालाचारी (राजाजी) से निवेदन किया कि वे ही इन पुरस्कारों को मंजूरी दे दें। राजाजी को लगा कि एक बार ब्रिटिश राजतंत्र की मंजूरी माँगने और न मिलने के पश्चात् गवर्नर जनरल द्वारा खुद उन्हें मंजूर करना उचित नहीं है, क्योंकि भारत तब भी ब्रिटिश राजतंत्र के ही अंतर्गत था।
लंदन में भारत के तत्कालीन उच्चायुक्त कृष्ण मेनन ने इस मामले की पैरवी समय–समय पर की, पर सन् 1948 के मध्य तक यह स्पष्ट हो गया कि ब्रिटिश साम्राज्य की मंजूरी इसे प्राप्त नहीं हो पाएगी। समस्या विकट थी। ब्रिटिश अपने राष्ट्रमंडल के दो सदस्य देशों के बीच युद्ध के लिए सम्मान कैसे मंजूर कर सकते थे। इसके अलावा इन पदकों पर ब्रिटिश राजतंत्र की सांकेतिक मुहर भी नहीं थी। इसलिए इनपर विचार नहीं हो सका। 1 जनवरी, 1949 को जम्मू-कश्मीर में युद्ध-विराम हो गया। उस युद्ध में वीरता दिखनेवालों को सम्मानित करने में देर करना हितकर नहीं था। अत: तत्कालीन प्रधानमंत्री ने गवर्नर जनरल चक्रवर्ती राजगोपालाचारी (राजाजी) से निवेदन किया कि वे ही इन पुरस्कारों को मंजूरी दे दें। राजाजी को लगा कि एक बार ब्रिटिश राजतंत्र की मंजूरी माँगने और न मिलने के पश्चात् गवर्नर जनरल द्वारा खुद उन्हें मंजूर करना उचित नहीं है, क्योंकि भारत तब भी ब्रिटिश राजतंत्र के ही अंतर्गत था।
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लोगों की राय
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